भाग एक - से अब आगे पढ़ेँ
पिछले लेख मेँ तो हुई शरीर की बात , लेकिन हम शरीर को नहीँ , जीवन जीते हैँ। उसका अर्थ ही इसलिए है क्योँकि शरीर के माध्यम से हम जीवन को जीते हैँ। इसका मतलब यह हुआ कि शरीर जीवन को सार्थकता प्रदान करने वाला एक माध्यम है ।
जैसे ही हमारा यह शरीर समाज का सदस्य बनता है , वैसे ही जीवन की शुरूआत हो जाती है । जैसे ही हम अपने इस शरीर को समाज का हिस्सा बना देते हैँ , वैसे ही हम समाज के सारे तत्वोँ और मूल्योँ को आत्मसात करने के लिए बाध्य हो जाते हैँ। यह एक प्रकार से अपने ही हाथोँ से अपने ही ऊपर मछली पकड़ने का जाल डाल लेने जैसा है । यह जाल है - मान्यताओँ का , परंपराओँ का , धर्म का , रीति- रिवाजोँ का , सभ्यताओँ का , संस्कृतियोँ का , संस्कारोँ का , कानूनोँ का तथा और भी ना जाने किन - किन का ।
शरीर एक । जीवन भी एक । लेकिन लादे गए ये बोझ अनेक । यहीँ से शुरू हो जाती हैं - जीवन की विडंबनाएँ । दुनियाँ भर के चकल्लस , तनाव , आपाधापी तथा और भी न जाने क्या - क्या ।
क्या कोई उपाय है कि हम अपने इस शरीर की मासूमियत को बचाए रख सकेँ , कयोँकि इसी मासूमियत मेँ रहता है आनन्द का रस ।
मंगलवार, 21 दिसंबर 2010
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1 टिप्पणी:
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