शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

सत्कर्मोँ से ही कल्याण


एक बार राजा जनक मुनि पाराशर जी के सत्संग के लिए पहुँचे । उन्होँने मुनिश्री से पूछा , 'मुनिवर , कौन-सा कर्म संपूर्ण प्राणियोँ के लिए लोक व परलोक , दोनोँ मेँ कल्याणकारी है ?'

मुनि ने कहा , 'धर्मानुसार सत्कर्म ही लोक-परलोक के लिए कल्याणकारी होते हैँ ।
जो मनुष्य मन , वाणी , नेत्र और क्रिया द्वारा सत्कर्म करते हैँ , शास्त्र विरूद्व मनमाने मर्यादाहीन आचरण से बचते हैँ , उन्हेँ इस लोक मेँ भी शांति मिलती है और परलोक मेँ भी ।'

मुनि उपदेश देते हुए कहते हैँ , 'आयु दुर्लभ वस्तु है । इसे पाकर आत्मा को नीचे नहीँ गिरना चाहिए , बल्कि सत्कर्मोँ का अनुष्ठान करते हुए ऊँचे उठने का प्रयत्न करना चाहिए । किसी भी प्रकार के पाप कर्म से सदैव बचना चाहिए । पाप कर्म चाह जान-बूझकर किया हो अथवा अनजाने मेँ , किसी न किसी रूप मेँ कष्टदायक होता है । अनजाने मेँ जो हिँसा होती है , उससे किसी के हृदय को दुःख पहुँचता है , वह तो एक बार के प्रायश्चित से मुक्ति दिला सकती है , किँतु स्वेच्छा से अथवा अहंकारपूर्वक किए गए दुष्कर्मोँ का तो घोर दुष्परिणाम भोगना पड़ता है । अतः सत्कर्म ही लोक-परलोक के कल्याण का साधन हैँ ।'

2 टिप्‍पणियां:

सुज्ञ ने कहा…

सत्कर्म ही लोक-परलोक के कल्याण का साधन है।

श्रेष्ठ और कल्याकारी, सर्वजगहितकारी सद्वचन!!

अनंत साधुवाद इस प्रस्तुति के लिए!!

बेनामी ने कहा…

यह भी आवश्यक है कि कर्ता के मन मस्तिष्क में सत्कर्म, दुष्कर्म और पाप की परिभाषा सही हो |

यदि सत्कर्म भी निज लाभ के लिए, या लोक स्तुति (तारीफ़) या परलोक में आने वाले फायदे को सोच कर किया जाए - तो वह कर्म बंधन को सशक्त बनाता है (जैसे स्टेज पर तारीफ़ के लिए एक सेठ किसी अनाथाश्रम को ५०,००० रुपये दान कर दे ) | ********* यदि वही सत्कर्म , कर्त्तव्य बोध से, बिना स्वार्थ फल की अपेक्षा से हो, तो वह कर्म बंधन को काटने वाली छुरी हो जाएगा (जैसे कि एक साधारण नौकरीपेशा मध्यम वर्गीय व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को जो किसी गाँव से आया हो, जेब कट गयी हो और लौटने के पैसे ना हों - तो उसे ५० रुपये टिकट के लिए दे - चाहे सामने वाला व्यक्ति धोखेबाज़ ही क्यों ना हो - इससे देने वाले की भावना नहीं प्रभावित होती) |

उसी तरह, तथाकथित "दुष्कर्म" या "पापकर्म" यदि निज लाभ के लिए है, तो वह कर्म बंधन को सशक्त बनाएगा | परन्तु वही यदि कर्त्तव्य (धर्म) के लिए है (जैसे श्रीराम द्वारा ताड़का वध) तो वह कर्म बंधन नहीं देता | जैसे, यदि एक सैनिक सीमा पर देश के प्रति कर्त्तव्य को निभाते हुए १०० लोगों की हत्या कर दे - तो यह पाप नहीं , यह कर्म "कर्म बंधन" नहीं बांधेगा | किन्तु यदि वह घर पर अपने पडोसी से निजी शत्रुता के कारण उस एक की हत्या करे - तो यह पाप हो जाएगा |

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